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अथातो भक्ति जिज्ञासा भाग-2...
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
शांडिल्य को खूब हृदयपूर्वक समझना।
शांडिल्य बड़ा स्वाभाविक सहज-योग प्रस्तावित कर रहे हैं।
जो सहज है, वही सत्य है।
जो असहज हो, उससे सावधान रहना
असहज में उलझे, तो जटिलताएं पैदा कर लोगे।
सहज से चले तो बिना अड़चन के पहुंच जाओगे।
इन अपूर्व सूत्रों पर खूब ध्यान करना। इनके रस में डूबना।
एक-एक सूत्र ऐसा बहुमूल्य है कि तुम पूरे जीवन से भी चुकाना चाहो तो उसकी कीमत नहीं चुकाई जा सकती।
शांडिल्य बड़ा स्वाभाविक सहज-योग प्रस्तावित कर रहे हैं।
जो सहज है, वही सत्य है।
जो असहज हो, उससे सावधान रहना
असहज में उलझे, तो जटिलताएं पैदा कर लोगे।
सहज से चले तो बिना अड़चन के पहुंच जाओगे।
इन अपूर्व सूत्रों पर खूब ध्यान करना। इनके रस में डूबना।
एक-एक सूत्र ऐसा बहुमूल्य है कि तुम पूरे जीवन से भी चुकाना चाहो तो उसकी कीमत नहीं चुकाई जा सकती।
ओशो
अथातोभक्तिजिज्ञासा !
अब भक्ति की जिज्ञासा !
सोचा, विचारा, पर उससे जिज्ञासा पूरी नहीं होती।
जिज्ञासा तो तभी पूरी होती है
जब रोम-रोम से समा जाए,
धड़कन-धड़कन में धड़के, श्वास-प्रश्वास में डोले। इन सूत्रों पर विचार और मनन करके ही जो रुक गया, वह जल सरोवर के पास पहुंचा और प्यासा रह गया। ये सूत्र ऐसे हैं कि तुम्हारे जीवन को सदा-सदा के लिए तृप्त कर दें।
इनकी महिमा अपार है।
पर इनके हाथ में भी नहीं है कि यदि तुम सहयोग न करो तो तुम्हें तृप्त कर सकें। तुम्हारे सहयोग के बिना कुछ भी न हो सकेगा। तुम्हारी स्वतंत्रता परम है।
तुम पीओगे, तो सरोवर काम आ जाएगा। तुम अकड़े खड़े रहे तो भी सरोवर के बस में नहीं है कि तुम्हारे कंठ में उतर जाए।
शांडिल्य को तोतों की तरह याद मत रख लेना, अन्यथा इतनी अपूर्व यात्रा की और कहीं न पहुंचे-सिर्फ सपना देखा। इतने महिमापूर्ण वचनों में गहरे गए, मगर कुछ गहराई न मिली, सिर्फ थोड़ा सा कूड़ा-कर्कट शब्दों का, सिद्धांतों का इकट्ठा हो गया। थोड़ा अहंकार और भर गया कि मैं जानता हूं। लेकिन जाना तो कुछ भी नहीं। इतना सस्ता तो जानना नहीं है। जानने में प्राण जोड़ने पड़ते हैं। अंतिम सूत्रों में प्राण जोड़ने की बात ही शांडिल्य ने कही है।
ओशो
अनुक्रम
२१. | भगवान को नहीं भक्ति को खोजो |
२२. | परमात्मा के प्रति राग है भक्ति |
२३. | गौणी-भक्ति में लगो, पराभक्ति की प्रतीक्षा करो |
२४. | प्रार्थना निरालंब दशा है |
२५. | सब जागरण उसका है |
२६. | संसार जड़ है, अध्यात्म फूल है |
२७. | विराट से मैत्री है भक्ति |
२८. | सुख से चुकाओ मूल्य परमात्मा को पाने का |
२९. | भक्ति अकर्मण्यता नहीं, अकर्ताभाव है |
३॰. | धर्म है मनुष्य के गीत का प्रकट हो जाना |
३१. | पदार्थ : अणुशक्ति : चेतना : प्रेमशक्ति |
३२. | अभीप्सा और प्रतीक्षा की एक साथ पूर्णता–प्रार्थना |
३३. | विकास, क्रांति और उत्क्रांति |
३४. | जागरण है द्वार स्वर्ग का |
३५. | सदगुरु शास्त्रों का पुनर्जन्म है |
३६. | मौजूदगी ही उसकी है |
३७. | ऊर्ध्वगति का आयाम है परमात्मा |
३८. | जगत की सबसे बड़ी बुद्धिमत्ता : प्रेम |
३९. | प्रेम ही मंदिर है |
४॰. | मिलन होता है |
भगवान को नहीं, भक्ति को खोजो
अथातोभक्तिजिज्ञासा !
अब भक्ति की जिज्ञासा।
भक्ति की क्यों ? भगवान की क्यों नहीं ?
साधारणतः लोग भगवान की खोज में निकलते हैं। और चूंकि भगवान की खोज में निकलते हैं इसलिए ही भगवान को कभी उपलब्ध नहीं हो पाते। भगवान की खोज ऐसी ही है जैसे अंधा आदमी प्रकाश की खोज में निकले। अंधे को आंख खोजनी चाहिए, प्रकाश नहीं। आंख का उपचार खोजना चाहिए, प्रकाश नहीं। प्रकाश तो है, उसकी खोज की जरूरत भी नहीं है; आंख नहीं है। इसलिए जो व्यक्ति भगवान की खोज में निकला, वह भटका। जो व्यक्ति भक्ति की खोज में निकलता है, वह पहुंचता है।
भक्ति यानी आंख। भक्ति यानी कुछ अपने भीतर रूपांतरित करना है। भक्ति का अर्थ हुआ, एक क्रांति से गुजरना है।
अथातोभक्तिजिज्ञासा !
साधारणतः कोई विचार करेगा तो लगेगा सूत्र शुरू होना चाहिए था–अब भगवान की जिज्ञासा। लेकिन सूत्र बड़ा बहुमूल्य है। सूत्र भगवान की बात ही नहीं उठाता। भगवान से तुम्हारा संबंध ही कैसे होगा ? भगवान से संबंधित होने वाला हृदय अभी नहीं, अभी वह तरंग नहीं उठती भीतर जो जोड़ दे तुम्हें। अभी आंखें अंधी हैं, अभी कान बहरे हैं। इसलिए भगवान को छोड़ो। उस चिंता में न पड़ो। भक्ति को जगा लो ! इधर भक्ति जगी, उधर भगवान मिला। इधर आंख खुली, उधर सूरज के दर्शन हुए। इधर कानों का बहरापन मिटा कि नाद ही नाद है, ओंकार ही ओंकार छाया हुआ है। सारा जगत अनाहत की ही अभिव्यक्ति है। इधर हृदय में तरंगें उठीं कि जो नहीं दिखाई पड़ता, वह दिखाई पड़ा।
एक तो बुद्धि है, जो विचार करती है; और एक हृदय है, जो अनुभव करता है। हमारे अनुभव की ग्रंथि बंद रह गई है। खुली नहीं; गांठ बनी रह गई है। हमारे अनुभव करने की क्षमता फूल नहीं बनी। इसलिए प्रश्न उठता है–भगवान है या नहीं ? लेकिन प्रश्न अगर जरा ही गलत हुआ तो उत्तर कभी सही नहीं हो पाएगा। भक्ति की जिज्ञासा करो !
मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं, भगवान कहां है ?
मैं उनसे पूछता हूं, भक्ति कहां है ? भक्ति पहले होनी चाहिए।
लेकिन उनके प्रश्न की भी बात विचारणीय है। वे कहते हैं, जब तक हमें भगवान का पता न हो, तब तक भक्ति कैसे हो ? किसकी भक्ति करें ? कैसे करें ? कहां जाएं ? किसके चरणों में झुकें ? भगवान का भरोसा तो पहले होना चाहिए। तभी तो हम झुक सकेंगे।
चूंकि भगवान की खोज की उन्होंने गलत जिज्ञासा उठा ली है, अब इस गलत जिज्ञासा के कारण बहुत से गलत समाधान उठते रहेंगे। भक्ति के लिए भगवान की कोई जरूरत ही नहीं है, आंख के उपचार के लिए सूरज की क्या जरूरत है ? भक्ति के लिए सिर्फ तुम्हारे प्रेम के, भाव के बढ़ने की जरूरत है, भगवान की कोई जरूरत नहीं है। प्रेम को इतना बढ़ाओ कि अहंकार उसमें डूब जाए, लीन हो जाए। जहां प्रेम निर-अहंकार को उपलब्ध हो जाता है, वहीं भक्ति बन जाता है।
भक्ति का भगवान से कुछ भी संबंध नहीं है। भक्ति तो प्रेम का ऊर्ध्वगमन है। प्रेम को मुक्त करो क्षुद्र से। प्रेम को बड़ा करो। प्रेम की बूंद को सागर बनाओ। जिससे भी प्रेम करते हो, गहनता से करो। जहां भी प्रेम हो, वहीं अपने को पूरा उंडेल दो। कंजूसी न करो। अगर प्रेम कृपण हो, तो काम हो जाता है; और प्रेम अगर अकृपण हो, तो भक्ति हो जाता है। प्रेम अगर मांगता हो, तो वासना हो जाता है; और प्रेम अगर देना ही जानता हो, तो भक्ति हो जाता है।
लुटाओ प्रेम। उसी लुटने में तुम भक्त हो जाओगे। और जहां तुम भक्त हुए, वहीं भगवान का दर्शन है।
तुमसे कहा गया है बार-बार कि भगवान पर भरोसा करो ताकि भक्ति हो सके। मैं तुमसे कहना चाहता हूं, भक्ति को जगाओ ताकि भगवान पर भरोसा हो सके। और शांडिल्य के सूत्र मेरे पक्ष में खड़े हैं।
शांडिल्य कहते है : अथातोभक्तिजिज्ञासा ! अब भक्ति की जिज्ञासा करें।
और जिसने भक्ति की जिज्ञासा नहीं की, वह आया तो संसार में, आ नहीं पाया; जीया और जी नहीं पाया; हुआ और हो नहीं पाया। उसकी कथा दुर्दिनों की कथा है और दुर्घटनाओं की। अवसर मिले, लेकिन कोई भी अवसर फला नहीं। जो भक्ति के बिना जी लिया, जो भगवान को बिना जाने जी लिया, उसके जीवन को क्या खाक जीवन कहें !
श्री अरविंद ने कहा है : जब मैं जागा तब मैंने जाना कि जीवन क्या है। उसके पहले तो जो जाना था, वह मृत्यु ही थी। उसे भ्रांति से जीवन समझ बैठा था। जब आंख खुली तब पहचाना रोशनी क्या है। उसके पहले जिसे रोशनी समझी थी, वह तो अंधेरा निकला। जब हृदय खुला तो अमृत की पहचान हुई। उसके पहले तो मृत्यु को ही अमृत समझ बैठे थे।
अंधा आदमी पत्थर को हीरा समझ ले, आश्चर्य क्या ? अंधे को परख भी कैसे हो पत्थर की और हीरे की ? अंधे को दोनों पत्थर हैं। आंख फर्क लाती है। आंख में जौहरी छिपा है।
तो खयाल रखना, अगर भक्ति की जिज्ञासा नहीं उठी है तो समझना कि अभी तुम जन्में ही नहीं। अभी तुम गर्भ में ही पड़े हो। अभी तुम बीज ही हो। अभी अंकुरण नहीं हुआ। अभी जीवन की जो परम संपदा है, उसकी भनक भी तुम्हारे कानों में नहीं पड़ी।
भक्ति की क्यों ? भगवान की क्यों नहीं ?
साधारणतः लोग भगवान की खोज में निकलते हैं। और चूंकि भगवान की खोज में निकलते हैं इसलिए ही भगवान को कभी उपलब्ध नहीं हो पाते। भगवान की खोज ऐसी ही है जैसे अंधा आदमी प्रकाश की खोज में निकले। अंधे को आंख खोजनी चाहिए, प्रकाश नहीं। आंख का उपचार खोजना चाहिए, प्रकाश नहीं। प्रकाश तो है, उसकी खोज की जरूरत भी नहीं है; आंख नहीं है। इसलिए जो व्यक्ति भगवान की खोज में निकला, वह भटका। जो व्यक्ति भक्ति की खोज में निकलता है, वह पहुंचता है।
भक्ति यानी आंख। भक्ति यानी कुछ अपने भीतर रूपांतरित करना है। भक्ति का अर्थ हुआ, एक क्रांति से गुजरना है।
अथातोभक्तिजिज्ञासा !
साधारणतः कोई विचार करेगा तो लगेगा सूत्र शुरू होना चाहिए था–अब भगवान की जिज्ञासा। लेकिन सूत्र बड़ा बहुमूल्य है। सूत्र भगवान की बात ही नहीं उठाता। भगवान से तुम्हारा संबंध ही कैसे होगा ? भगवान से संबंधित होने वाला हृदय अभी नहीं, अभी वह तरंग नहीं उठती भीतर जो जोड़ दे तुम्हें। अभी आंखें अंधी हैं, अभी कान बहरे हैं। इसलिए भगवान को छोड़ो। उस चिंता में न पड़ो। भक्ति को जगा लो ! इधर भक्ति जगी, उधर भगवान मिला। इधर आंख खुली, उधर सूरज के दर्शन हुए। इधर कानों का बहरापन मिटा कि नाद ही नाद है, ओंकार ही ओंकार छाया हुआ है। सारा जगत अनाहत की ही अभिव्यक्ति है। इधर हृदय में तरंगें उठीं कि जो नहीं दिखाई पड़ता, वह दिखाई पड़ा।
एक तो बुद्धि है, जो विचार करती है; और एक हृदय है, जो अनुभव करता है। हमारे अनुभव की ग्रंथि बंद रह गई है। खुली नहीं; गांठ बनी रह गई है। हमारे अनुभव करने की क्षमता फूल नहीं बनी। इसलिए प्रश्न उठता है–भगवान है या नहीं ? लेकिन प्रश्न अगर जरा ही गलत हुआ तो उत्तर कभी सही नहीं हो पाएगा। भक्ति की जिज्ञासा करो !
मेरे पास लोग आ जाते हैं। वे कहते हैं, भगवान कहां है ?
मैं उनसे पूछता हूं, भक्ति कहां है ? भक्ति पहले होनी चाहिए।
लेकिन उनके प्रश्न की भी बात विचारणीय है। वे कहते हैं, जब तक हमें भगवान का पता न हो, तब तक भक्ति कैसे हो ? किसकी भक्ति करें ? कैसे करें ? कहां जाएं ? किसके चरणों में झुकें ? भगवान का भरोसा तो पहले होना चाहिए। तभी तो हम झुक सकेंगे।
चूंकि भगवान की खोज की उन्होंने गलत जिज्ञासा उठा ली है, अब इस गलत जिज्ञासा के कारण बहुत से गलत समाधान उठते रहेंगे। भक्ति के लिए भगवान की कोई जरूरत ही नहीं है, आंख के उपचार के लिए सूरज की क्या जरूरत है ? भक्ति के लिए सिर्फ तुम्हारे प्रेम के, भाव के बढ़ने की जरूरत है, भगवान की कोई जरूरत नहीं है। प्रेम को इतना बढ़ाओ कि अहंकार उसमें डूब जाए, लीन हो जाए। जहां प्रेम निर-अहंकार को उपलब्ध हो जाता है, वहीं भक्ति बन जाता है।
भक्ति का भगवान से कुछ भी संबंध नहीं है। भक्ति तो प्रेम का ऊर्ध्वगमन है। प्रेम को मुक्त करो क्षुद्र से। प्रेम को बड़ा करो। प्रेम की बूंद को सागर बनाओ। जिससे भी प्रेम करते हो, गहनता से करो। जहां भी प्रेम हो, वहीं अपने को पूरा उंडेल दो। कंजूसी न करो। अगर प्रेम कृपण हो, तो काम हो जाता है; और प्रेम अगर अकृपण हो, तो भक्ति हो जाता है। प्रेम अगर मांगता हो, तो वासना हो जाता है; और प्रेम अगर देना ही जानता हो, तो भक्ति हो जाता है।
लुटाओ प्रेम। उसी लुटने में तुम भक्त हो जाओगे। और जहां तुम भक्त हुए, वहीं भगवान का दर्शन है।
तुमसे कहा गया है बार-बार कि भगवान पर भरोसा करो ताकि भक्ति हो सके। मैं तुमसे कहना चाहता हूं, भक्ति को जगाओ ताकि भगवान पर भरोसा हो सके। और शांडिल्य के सूत्र मेरे पक्ष में खड़े हैं।
शांडिल्य कहते है : अथातोभक्तिजिज्ञासा ! अब भक्ति की जिज्ञासा करें।
और जिसने भक्ति की जिज्ञासा नहीं की, वह आया तो संसार में, आ नहीं पाया; जीया और जी नहीं पाया; हुआ और हो नहीं पाया। उसकी कथा दुर्दिनों की कथा है और दुर्घटनाओं की। अवसर मिले, लेकिन कोई भी अवसर फला नहीं। जो भक्ति के बिना जी लिया, जो भगवान को बिना जाने जी लिया, उसके जीवन को क्या खाक जीवन कहें !
श्री अरविंद ने कहा है : जब मैं जागा तब मैंने जाना कि जीवन क्या है। उसके पहले तो जो जाना था, वह मृत्यु ही थी। उसे भ्रांति से जीवन समझ बैठा था। जब आंख खुली तब पहचाना रोशनी क्या है। उसके पहले जिसे रोशनी समझी थी, वह तो अंधेरा निकला। जब हृदय खुला तो अमृत की पहचान हुई। उसके पहले तो मृत्यु को ही अमृत समझ बैठे थे।
अंधा आदमी पत्थर को हीरा समझ ले, आश्चर्य क्या ? अंधे को परख भी कैसे हो पत्थर की और हीरे की ? अंधे को दोनों पत्थर हैं। आंख फर्क लाती है। आंख में जौहरी छिपा है।
तो खयाल रखना, अगर भक्ति की जिज्ञासा नहीं उठी है तो समझना कि अभी तुम जन्में ही नहीं। अभी तुम गर्भ में ही पड़े हो। अभी तुम बीज ही हो। अभी अंकुरण नहीं हुआ। अभी जीवन की जो परम संपदा है, उसकी भनक भी तुम्हारे कानों में नहीं पड़ी।
दिल में सोजे-गम की इक दुनिया लिए जाता हूं मैं
आह तेरे मैकदे से बेपिए जाता हूं मैं
आह तेरे मैकदे से बेपिए जाता हूं मैं
जो बिना भक्ति के चला गया है, वह इस मधुशाला में आया और बिना पीए चला गया।
आह तेरे मैकदे से बेपिए जाता हूं मैं
इस जगत को पीने की कला है भक्ति। और जगत को जब तुम पीते हो तो कंठ में जो
स्वाद आता है, उसी का नाम भगवान है। इस जगत को पचा लेने की कला है भक्ति।
और जब जगत पच जाता है तुम्हारे भीतर और उस पचे हुए जगत से रस का आविर्भाव
होता है–रसो वै सः। उस रस को जगा लेने की कीमिया है भक्ति।
शांडिल्य ने ठीक ही किया जो भगवान की जिज्ञासा से शुरू नहीं की बात। भगवान की जिज्ञासा दार्शनिक करते हैं। दार्शनिक कभी भगवान तक पहुंचते नहीं; विचार करते हैं भगवान का। जैसे अंधा विचार करे प्रकाश का। बस ऐसे ही उनके विचार हैं–अंधे की कल्पनाएं, अनुमान। उन अनुमानों में कोई भी निष्कर्ष कभी नहीं। निष्कर्ष तो अनुभव से आता है।
शांडिल्य के सूत्र दर्शनशास्त्र के सूत्र नहीं हैं, प्रेमशास्त्र के सूत्र हैं। इसलिए पहले सूत्र में ही शांडिल्य ने अपनी यात्रा का सारा संकेत दे दिया–मैं किस तरफ जा रहा हूँ।
इसके पहले कि मौत तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे–और मौत दस्तक देगी ही–तुम भक्ति की जिज्ञासा करो। मौत आए, उसके पहले भक्ति आ जाए, ऐसे जीवन का नियोजन करो। इसी को मैं संन्यास कहता हूं। जीवन का ऐसा नियोजन कि मौत के पहले भक्ति आ जाए, तो तुम कुशलता से जीए, तो तुम होशियार थे, तो तुम्हारे भीतर बुद्धिमत्ता थी।
शांडिल्य ने ठीक ही किया जो भगवान की जिज्ञासा से शुरू नहीं की बात। भगवान की जिज्ञासा दार्शनिक करते हैं। दार्शनिक कभी भगवान तक पहुंचते नहीं; विचार करते हैं भगवान का। जैसे अंधा विचार करे प्रकाश का। बस ऐसे ही उनके विचार हैं–अंधे की कल्पनाएं, अनुमान। उन अनुमानों में कोई भी निष्कर्ष कभी नहीं। निष्कर्ष तो अनुभव से आता है।
शांडिल्य के सूत्र दर्शनशास्त्र के सूत्र नहीं हैं, प्रेमशास्त्र के सूत्र हैं। इसलिए पहले सूत्र में ही शांडिल्य ने अपनी यात्रा का सारा संकेत दे दिया–मैं किस तरफ जा रहा हूँ।
इसके पहले कि मौत तुम्हारे द्वार पर दस्तक दे–और मौत दस्तक देगी ही–तुम भक्ति की जिज्ञासा करो। मौत आए, उसके पहले भक्ति आ जाए, ऐसे जीवन का नियोजन करो। इसी को मैं संन्यास कहता हूं। जीवन का ऐसा नियोजन कि मौत के पहले भक्ति आ जाए, तो तुम कुशलता से जीए, तो तुम होशियार थे, तो तुम्हारे भीतर बुद्धिमत्ता थी।
वक्त की सईए-मुसलसल कारगर होती गई
जिंदगी लहजा-ब-लहजा मुख्तसर होती गई
सांस के परदों में बजता ही रहा साजे-हयात
मौत के कदमों की आहट तेजतर होती गई
जिंदगी लहजा-ब-लहजा मुख्तसर होती गई
सांस के परदों में बजता ही रहा साजे-हयात
मौत के कदमों की आहट तेजतर होती गई
सुन रहे हो ? यह सांस की वीणा बजती ही रहेगी और मौत करीब आती जा रही है।
सांस के परदों में बजता ही रहा साजे-हयात
यह जिंदगी का गीत सांस के बाजे पर बजता ही रहेगा। इसी में मत भटके रहना।
सांस के परदों में बजता ही रहा साजे-हयात
मौत के कदमों की आहट तेजतर होती गई
मौत के कदमों की आहट तेजतर होती गई
जरा गौर से सुनो, मौत के कदम रोज-रोज करीब आते जा रहे हैं। मौत फासला कम
कर रही है। जिस दिन से तुम पैदा हुए हो, उसी दिन से मौत फासला कम करने में
लग गई है, तुम रोज मर रहे हो। सांसों में बहुत भटके मत रहना। इनका बहुत
भरोसा नहीं। अभी आ रही है सांस, अभी न आएगी तो कुछ भी न कर सकोगे। अवश
पड़े रह जाओगे। तब बहुत पछताओगे।
आह तेरे मैकदे से बेपिए जाता हूं मैं
रोओगे फिर, लेकिन तब बहुत देर हो चुकी। कहते हैं : सुबह का भूला सांझ भी
घर आ जाए तो भूला नहीं कहाता। लेकिन सांझ भी आ जाए तो ! अगर मौत आ गई तो
सांझ भी आई और गई। फिर लौटने का उपाय न रहा, समय न रहा।
मौत का अर्थ क्या होता है ? इतना ही कि जितना समय तुम्हें दिया था, चुक गया। मौत का अर्थ होता है : जितना अवसर तुम्हें दिया था, तुमने गंवा दिया। मौत का अर्थ होता है : अब और समय नहीं बचा। अब करने का कोई उपाय नहीं। एक आह भी न भर सकोगे। एक प्रार्थना भी न कर सकोगे। राम का नाम भी न ले सकोगे। सांस ही न लौटी तो राम का नाम अब कैसे ले सकोगे ? एक नाम लेने की भी सुविधा नहीं बचती है। और मौत रोज करीब आ रही है। और तुम जिंदगी की सांसों में उलझे पड़े रहते हो।
अथातोभक्तिजिज्ञासा ! अब भक्ति की जिज्ञासा करो।
इसके पहले कि हम आज के सूत्रों में उतरें, कुछ पिछले सूत्रों का थोड़ा सा स्वाद ले लेना जरूरी है।
पूर्व-सूत्र :
सूर्य को देखने के दो उपाय हो सकते हैं। एक तो सीधा सूरज को देखो और एक दर्पण में सूरज को देखो। हालांकि दर्पण में जो दिखाई पड़ता है वह प्रतिबिंब ही है, असली सूरज नहीं। प्रतिबिंब तो प्रतिबिंब ही है, असली कैसे होगा ? वह असली का धोखा है। वह असली की छाया है। इसलिए सूरज को देखने के दो ढंग हैं, यह कहना भी शायद ठीक नहीं, ढंग तो एक ही है–सीधा देखो। दूसरा ढंग कमजोरों के लिए है, कायरों के लिए है।
जो लोग शास्त्र में सत्य को खोजते हैं, वे कायर हैं। वे दर्पण में सूरज को देखने की कोशिश कर रहे हैं। दर्पण में सूरज दिख भी जाएगा तो भी किसी काम का नहीं। छाया मात्र है। दर्पण के सूरज को तुम पकड़ न पाओगे। शास्त्र में जो सत्य की झलक मालूम होती है, झलक ही है। लेकिन लोगों ने शास्त्र सिर पर रख लिए हैं। कोई गीता कोई कुरान, कोई बाइबिल। लोग शास्त्रों की पूजा में लगे हैं। यह दर्पण की पूजा चल रही है; सूरज को तो भूल ही गए। और दर्पणों पर इतने फूल चढ़ा दिए हैं पूजा के कि अब उनमें प्रतिबिंब भी नहीं बनता। उन पर व्याख्याओं की इतनी धूल जमा दी है, सिद्धांतों का इतना जाल फैला दिया है कि अब शास्त्रों से कोई खबर नहीं आती सत्य की।
सत्य को देखना हो, सीधा ही देखा जा सकता है। इसलिए शांडिल्य कहते हैं : भक्ति की जिज्ञासा करें हम। शांडिल्य के पहले भक्त हो चुके थे, बहुत हो चुके थे, ज्ञानी हो चुके थे, शास्त्र निर्मित हो चुके थे। शांडिल्य ने नहीं कहा कि चलो अब शास्त्र में चलें और सत्य को खोजें, चलो अब शास्त्र में चलो और भगवान की छवि को तलाशें। नहीं, शांडिल्य ने कहा, हम अपने हृदय को साफ करें। भगवान मिलेगा तो वहां मिलेगा। शब्दों में नहीं, परायों के शब्दों में नहीं, अपने अनुभव में मिलेगा।
अनुभूति पर यह जोर ठीक-ठीक पकड़ लेना।
परमात्मा की झलक तो सब तरफ मौजूद है। और अगर तुम्हें वृक्षों में उसकी झलक नहीं दिखाई पड़ती तो तुम्हें शास्त्रों में उसकी झलक कभी भी दिखाई नहीं पड़ेगी। क्योंकि शास्त्र में तो मुर्दा शब्द हैं। न तो बढ़ते, न घटते; न उनमें नये पत्ते लगते, न नई शाखें उमगतीं, न पक्षी बसेरा लेते। शास्त्रों में तो थोथे शब्द है। वहां फूल कहां खिलते हैं ? वहां सुगंध कहां उठती है ? शास्त्र तो कागज पर खींची गई लकींरें है। मगर खूब धोखा आदमी ने खाया है। उन्हीं लकीरों की पूजा करता रहता है। या तो यह धोखा है, या यह चालबाजी है। चालबाजी यह है कि इस तरह भगवान से बचता रहता है। कहता है, देखो तो तुम्हारे शास्त्रों को पूजते हैं।
कभी-कभी भगवान को और-और झलकों में भी पकड़ने की कोशिश करता है। पुराने दिनों में राजाओं को, महाराजाओं को भगवान मान लिया जाता था। पद को परमपद समझ लिया जाता था। तो लोग राजाओं की पूजा करते रहे; पद की प्रतिष्ठा करते रहे। बात अब भी समाप्त नहीं हो गई है। राजा तो अब नहीं के बराबर रहे, न के बराबर रहे। कहते हैं अंत में दुनिया में केवल पांच ही राजा रह जाएंगे। एक इंग्लैंड का राजा और चार ताश के पत्तों के राजे; बाकी सब तो चले जाएंगे। इंग्लैंड का राजा भी ताश का पत्ता ही है, इसलिए बचेगा। और तो कोई बच सकता नहीं। लेकिन राजनीति का अब भी बल है। अब भी राजपद का बल है। राजा ने रहे हों, लेकिन राजनेता है। तुम उसी की पूजा में लग जाते हो। देखते हो, राजनेता के आस-पास लोग कैसी पूंछ हिलाते हैं ? किस तरह गजरे पहनाते हैं ? किस तरह फूल बरसाते हैं ?
धन की पूजा में लग जाते हो। जिसके पास धन है, वहां पूजा में लग जाते हो। या तो कुछ लोग शास्त्रों के मुर्दा शब्दों को पूजते रहते हैं, या मंदिरों में रखी हुई पत्थर की मूर्तियों को पूजते रहते हैं, या पंडित-पुजारी को पूजते रहते हैं, जिन्हें खुद भी परमात्मा की कोई झलक नहीं मिली, जो तुम्हारे नौकर-चाकर हैं, जिन्हें तुमने नियुक्त कर रखा है, जो पूजा के नाम पर केवल आजीविका कमा रहे हैं। या लोग पद में देख लेते हैं परमात्मा को और पद की पूजा में लग जाते हैं, या धन में।
मगर ये सब मुर्दा हैं खेल। अगर परमात्मा को देखना हो तो सीधा देखो। परमात्मा सीधा उपलब्ध है–इन पक्षियों के गीत में, इन वृक्षों की हरियाली में, आकाश के चांद-तारों में, मनुष्यों की आंखों में। और जहां भी तुम प्रेम की कुदाल में खोदोगे, वहीं तुम पाओगे कि परमात्मा का झरना मिलना शुरू हो गया। झलकों में मत भटको।
इसलिए पूर्व-सूत्रों ने कहा कि विभूतियों में मत उलझ जाना। विभूतियां तो झलकें मात्र हैं प्रतिभा की। कोई आदमी बड़ा गणितज्ञ है, यह प्रतिभा है। और कोई आदमी बड़ा संगीतज्ञ है, यह प्रतिभा है। और कोई आदमी बड़ा होशियार है और धन इकट्ठा कर लिया है, कोई आदमी बड़ा चालबाज है और राजपद पर पहुंच गया है, ये सब प्रतिभाएं है। इनका कोई धार्मिक मूल्य नहीं है। इनके होने से कोई धर्म का संबंध नहीं है। इसलिए पूर्व-सूत्रों में कहा गया कि प्रतिभा, विभूति, इनमें मत उलझ जाना।
इनका प्रभाव पड़ता है। कोई आदमी अच्छा बोलता है, इससे मत उलझ जाना, क्योंकि अच्छे बोलने से सत्य का कोई संबंध नहीं है। हो सकता है अच्छा बोलता हो, लेकिन झूठ ही बोलता हो। और इतने अच्छे ढंग से बोलता हो कि झूठ भी सच जैसा मालूम पड़ता हो। यह भी हो सकता है, कोई आदमी सुंदर गीत गा सकता है–ऐसे सुंदर कि आकाश की उड़ान लें, ऐसे सुंदर कि लगे सत्य के लोक से उतरा है यह आदमी। मगर इससे उलझ मत जाना। यह सिर्फ हो सकता है गीत की कला हो, यह मात्रा बिठाने की कुशलता हो, यह आदमी कवि हो।
बहुत तरह की विभूतियां हैं। विभूतियां श्रम से अर्जित हैं, चाहे इस जन्म की हों, चाहे पिछले जन्म की हों। विभूति श्रम से उत्पन्न होती है।
किसी ने पश्चिम के बहुत बड़े संगीतज्ञ मोझर्ट से पूछा। मोझर्ट अदभुत प्रतिभा का धनी था। कहते हैं जब सात साल का था तभी से संगीत में उसकी कुशलता ऐसी थी कि बड़े-बड़े संगीत के पंडित उस छोटे से बच्चे से हार गए थे। सारे जगत में उसकी ख्याति थी। किसी ने पूछा कि तुम्हारी प्रतिभा का राज क्या है ? तो उसने कहा, श्रम। उसने जो शब्द उपयोग किए... पूछने वाले ने उससे पूछा था, तुम्हारी प्रतिभा की प्रेरणा क्या है ? तुम्हारी प्रतिभा का इंस्पाइरेशन क्या है ? मोझर्ट हंसा और उसने कहा, इंस्पाइरेशन तो बहुत बड़ा है, पर्सपाइरेशन बहुत ज्यादा है। पसीना बहुत है, श्रम बहुत है। प्रतिभा कहां है ? प्रेरणा कहां है ?
मौत का अर्थ क्या होता है ? इतना ही कि जितना समय तुम्हें दिया था, चुक गया। मौत का अर्थ होता है : जितना अवसर तुम्हें दिया था, तुमने गंवा दिया। मौत का अर्थ होता है : अब और समय नहीं बचा। अब करने का कोई उपाय नहीं। एक आह भी न भर सकोगे। एक प्रार्थना भी न कर सकोगे। राम का नाम भी न ले सकोगे। सांस ही न लौटी तो राम का नाम अब कैसे ले सकोगे ? एक नाम लेने की भी सुविधा नहीं बचती है। और मौत रोज करीब आ रही है। और तुम जिंदगी की सांसों में उलझे पड़े रहते हो।
अथातोभक्तिजिज्ञासा ! अब भक्ति की जिज्ञासा करो।
इसके पहले कि हम आज के सूत्रों में उतरें, कुछ पिछले सूत्रों का थोड़ा सा स्वाद ले लेना जरूरी है।
पूर्व-सूत्र :
सूर्य को देखने के दो उपाय हो सकते हैं। एक तो सीधा सूरज को देखो और एक दर्पण में सूरज को देखो। हालांकि दर्पण में जो दिखाई पड़ता है वह प्रतिबिंब ही है, असली सूरज नहीं। प्रतिबिंब तो प्रतिबिंब ही है, असली कैसे होगा ? वह असली का धोखा है। वह असली की छाया है। इसलिए सूरज को देखने के दो ढंग हैं, यह कहना भी शायद ठीक नहीं, ढंग तो एक ही है–सीधा देखो। दूसरा ढंग कमजोरों के लिए है, कायरों के लिए है।
जो लोग शास्त्र में सत्य को खोजते हैं, वे कायर हैं। वे दर्पण में सूरज को देखने की कोशिश कर रहे हैं। दर्पण में सूरज दिख भी जाएगा तो भी किसी काम का नहीं। छाया मात्र है। दर्पण के सूरज को तुम पकड़ न पाओगे। शास्त्र में जो सत्य की झलक मालूम होती है, झलक ही है। लेकिन लोगों ने शास्त्र सिर पर रख लिए हैं। कोई गीता कोई कुरान, कोई बाइबिल। लोग शास्त्रों की पूजा में लगे हैं। यह दर्पण की पूजा चल रही है; सूरज को तो भूल ही गए। और दर्पणों पर इतने फूल चढ़ा दिए हैं पूजा के कि अब उनमें प्रतिबिंब भी नहीं बनता। उन पर व्याख्याओं की इतनी धूल जमा दी है, सिद्धांतों का इतना जाल फैला दिया है कि अब शास्त्रों से कोई खबर नहीं आती सत्य की।
सत्य को देखना हो, सीधा ही देखा जा सकता है। इसलिए शांडिल्य कहते हैं : भक्ति की जिज्ञासा करें हम। शांडिल्य के पहले भक्त हो चुके थे, बहुत हो चुके थे, ज्ञानी हो चुके थे, शास्त्र निर्मित हो चुके थे। शांडिल्य ने नहीं कहा कि चलो अब शास्त्र में चलें और सत्य को खोजें, चलो अब शास्त्र में चलो और भगवान की छवि को तलाशें। नहीं, शांडिल्य ने कहा, हम अपने हृदय को साफ करें। भगवान मिलेगा तो वहां मिलेगा। शब्दों में नहीं, परायों के शब्दों में नहीं, अपने अनुभव में मिलेगा।
अनुभूति पर यह जोर ठीक-ठीक पकड़ लेना।
परमात्मा की झलक तो सब तरफ मौजूद है। और अगर तुम्हें वृक्षों में उसकी झलक नहीं दिखाई पड़ती तो तुम्हें शास्त्रों में उसकी झलक कभी भी दिखाई नहीं पड़ेगी। क्योंकि शास्त्र में तो मुर्दा शब्द हैं। न तो बढ़ते, न घटते; न उनमें नये पत्ते लगते, न नई शाखें उमगतीं, न पक्षी बसेरा लेते। शास्त्रों में तो थोथे शब्द है। वहां फूल कहां खिलते हैं ? वहां सुगंध कहां उठती है ? शास्त्र तो कागज पर खींची गई लकींरें है। मगर खूब धोखा आदमी ने खाया है। उन्हीं लकीरों की पूजा करता रहता है। या तो यह धोखा है, या यह चालबाजी है। चालबाजी यह है कि इस तरह भगवान से बचता रहता है। कहता है, देखो तो तुम्हारे शास्त्रों को पूजते हैं।
कभी-कभी भगवान को और-और झलकों में भी पकड़ने की कोशिश करता है। पुराने दिनों में राजाओं को, महाराजाओं को भगवान मान लिया जाता था। पद को परमपद समझ लिया जाता था। तो लोग राजाओं की पूजा करते रहे; पद की प्रतिष्ठा करते रहे। बात अब भी समाप्त नहीं हो गई है। राजा तो अब नहीं के बराबर रहे, न के बराबर रहे। कहते हैं अंत में दुनिया में केवल पांच ही राजा रह जाएंगे। एक इंग्लैंड का राजा और चार ताश के पत्तों के राजे; बाकी सब तो चले जाएंगे। इंग्लैंड का राजा भी ताश का पत्ता ही है, इसलिए बचेगा। और तो कोई बच सकता नहीं। लेकिन राजनीति का अब भी बल है। अब भी राजपद का बल है। राजा ने रहे हों, लेकिन राजनेता है। तुम उसी की पूजा में लग जाते हो। देखते हो, राजनेता के आस-पास लोग कैसी पूंछ हिलाते हैं ? किस तरह गजरे पहनाते हैं ? किस तरह फूल बरसाते हैं ?
धन की पूजा में लग जाते हो। जिसके पास धन है, वहां पूजा में लग जाते हो। या तो कुछ लोग शास्त्रों के मुर्दा शब्दों को पूजते रहते हैं, या मंदिरों में रखी हुई पत्थर की मूर्तियों को पूजते रहते हैं, या पंडित-पुजारी को पूजते रहते हैं, जिन्हें खुद भी परमात्मा की कोई झलक नहीं मिली, जो तुम्हारे नौकर-चाकर हैं, जिन्हें तुमने नियुक्त कर रखा है, जो पूजा के नाम पर केवल आजीविका कमा रहे हैं। या लोग पद में देख लेते हैं परमात्मा को और पद की पूजा में लग जाते हैं, या धन में।
मगर ये सब मुर्दा हैं खेल। अगर परमात्मा को देखना हो तो सीधा देखो। परमात्मा सीधा उपलब्ध है–इन पक्षियों के गीत में, इन वृक्षों की हरियाली में, आकाश के चांद-तारों में, मनुष्यों की आंखों में। और जहां भी तुम प्रेम की कुदाल में खोदोगे, वहीं तुम पाओगे कि परमात्मा का झरना मिलना शुरू हो गया। झलकों में मत भटको।
इसलिए पूर्व-सूत्रों ने कहा कि विभूतियों में मत उलझ जाना। विभूतियां तो झलकें मात्र हैं प्रतिभा की। कोई आदमी बड़ा गणितज्ञ है, यह प्रतिभा है। और कोई आदमी बड़ा संगीतज्ञ है, यह प्रतिभा है। और कोई आदमी बड़ा होशियार है और धन इकट्ठा कर लिया है, कोई आदमी बड़ा चालबाज है और राजपद पर पहुंच गया है, ये सब प्रतिभाएं है। इनका कोई धार्मिक मूल्य नहीं है। इनके होने से कोई धर्म का संबंध नहीं है। इसलिए पूर्व-सूत्रों में कहा गया कि प्रतिभा, विभूति, इनमें मत उलझ जाना।
इनका प्रभाव पड़ता है। कोई आदमी अच्छा बोलता है, इससे मत उलझ जाना, क्योंकि अच्छे बोलने से सत्य का कोई संबंध नहीं है। हो सकता है अच्छा बोलता हो, लेकिन झूठ ही बोलता हो। और इतने अच्छे ढंग से बोलता हो कि झूठ भी सच जैसा मालूम पड़ता हो। यह भी हो सकता है, कोई आदमी सुंदर गीत गा सकता है–ऐसे सुंदर कि आकाश की उड़ान लें, ऐसे सुंदर कि लगे सत्य के लोक से उतरा है यह आदमी। मगर इससे उलझ मत जाना। यह सिर्फ हो सकता है गीत की कला हो, यह मात्रा बिठाने की कुशलता हो, यह आदमी कवि हो।
बहुत तरह की विभूतियां हैं। विभूतियां श्रम से अर्जित हैं, चाहे इस जन्म की हों, चाहे पिछले जन्म की हों। विभूति श्रम से उत्पन्न होती है।
किसी ने पश्चिम के बहुत बड़े संगीतज्ञ मोझर्ट से पूछा। मोझर्ट अदभुत प्रतिभा का धनी था। कहते हैं जब सात साल का था तभी से संगीत में उसकी कुशलता ऐसी थी कि बड़े-बड़े संगीत के पंडित उस छोटे से बच्चे से हार गए थे। सारे जगत में उसकी ख्याति थी। किसी ने पूछा कि तुम्हारी प्रतिभा का राज क्या है ? तो उसने कहा, श्रम। उसने जो शब्द उपयोग किए... पूछने वाले ने उससे पूछा था, तुम्हारी प्रतिभा की प्रेरणा क्या है ? तुम्हारी प्रतिभा का इंस्पाइरेशन क्या है ? मोझर्ट हंसा और उसने कहा, इंस्पाइरेशन तो बहुत बड़ा है, पर्सपाइरेशन बहुत ज्यादा है। पसीना बहुत है, श्रम बहुत है। प्रतिभा कहां है ? प्रेरणा कहां है ?
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